मिथिलेश आदित्य
अंधेरे में
माचिस नहीं मिल रही थी
उसे दीप जलाना था
मेरे पास माचिस थी
मैंने उसका दीप जला दिया
दीप जलते ही
रौशन हुआ उसका घर
तत्तपश्चात्
उसे अपनी माचिस दिखाई दी
उसने अपनी माचिस पाई
और मेरे द्वारा—
जलाए गए दीप को बुझा दिया
उसने अपनी माचिस से दीप जलाया
फिर उसने—
विनम्रतापूर्वक
मुझसे मेरी माचिस मांगी
मैंने मित्रतावश—
उसे अपनी माचिस दी
पर हँसते हुए उसने
उस जलते दीप में
मेरी माचिस जला दी
और मुझसे
हाथ मिलाते हुए कहा—
मुझ पर भी
कोई कविता लिखो मित्र
तुम कवि लोग तो
एक कप चाय पर
कविता लिखते और सुनाते हो
और फिर
मुझे विदा करते हुए कहा—
फिर मिलेंगे कभी
मिलते—जुलते
रहना...
आते—जाते
रहना...
फोन — वोन करते रहना...
धन्यवाद...
आज मैं इस परिचित पर
कविता लिखने बैठा हूँ !!!
सोचता हूँ—
कैसी कविता लिखूँ ?
उजाला की कविता लिखूँ ?
कि अंधेरा की कविता लिखूँ ?
समानता की कविता लिखूँ ?
कि स्वार्थ कविता लिखूँ ?
दंभ की कविता लिखूँ ?
कि शालिनता की कविता लिखूँ ?
...