रविवार, 28 फ़रवरी 2016

तुम्हारी आँखों में

मिथिलेश आदित्य
तुम्हारी आँखों में
पाता हूँ
स्नेह की धारा
दर्द को—  
झेल लेने की कला
मंजिल पाने का
ठौरठिकाना
और
भागदौड़
जिन्दगी का परिणाम
उलझे सवालों का हल

इसीलिए प्रिये
निहारता हूँ अनवरत 
तुम्हारी आँखों को
ताकि
ढूँढ़ सकूँ
माप सकूँ
बेहतर जिन्दगी को
तुम्हारी आँखों में
...

कामना

मिथिलेश आदित्य
काँटों के घने जंगल
उगा लेना
चाहता हूँमैं
अपने चारों तरफ

ताकि

कभी ना सो सकूँ
गहरी नींद
इसके चुभन से
...

मेरा एक परिचित और मैं

मिथिलेश आदित्य
अंधेरे में
माचिस नहीं मिल रही थी
उसे दीप जलाना था

मेरे पास माचिस थी
मैंने उसका दीप जला दिया
दीप जलते ही
रौशन हुआ उसका घर

तत्तपश्चात्
उसे अपनी माचिस दिखाई दी
उसने अपनी माचिस पाई
और मेरे द्वारा
जलाए गए दीप को बुझा दिया
उसने अपनी माचिस से दीप जलाया

फिर उसने
विनम्रतापूर्वक
मुझसे मेरी माचिस मांगी
मैंने मित्रतावश
उसे अपनी माचिस दी
पर हँसते हुए उसने
उस जलते दीप में
मेरी माचिस जला दी
और मुझसे
हाथ मिलाते हुए कहा
मुझ पर भी
कोई कविता लिखो मित्र
तुम कवि लोग तो
एक कप चाय पर
कविता लिखते और सुनाते हो
और फिर
मुझे विदा करते हुए कहा
फिर मिलेंगे कभी
मिलतेजुलते रहना...
आतेजाते रहना...
फोनवोन करते रहना...
धन्यवाद...

आज मैं इस परिचित पर
कविता लिखने बैठा हूँ !!!
सोचता हूँ
कैसी कविता लिखूँ ?
उजाला की कविता लिखूँ ?
कि अंधेरा की कविता लिखूँ ?
समानता की कविता लिखूँ ?
कि स्वार्थ कविता लिखूँ ?
दंभ की कविता लिखूँ ?
कि शालिनता की कविता लिखूँ ?
...

पाक्षिक पर्व

मिथिलेश आदित्य
नेपाल के वाणी प्रकाशन में
मनाया जा रहा है
पाक्षिक पर्व
इसके दहलीज पर आतेजाते हैं
युग के मसीहा
और रचतेसुनाते हैं
जनजीवन की बातें

इसीलिए तो मैं
यहाँ की दहलीज पर
आतेजाते पाँव के धूलकण को
चन्दन बनते देखकर
लगाता हूँ माथे पर
गर्व के साथ
उमंग के साथ
नये संकल्प सोच के साथ
यह समझकर कि वे
उपदेशक की तरह
रखते हैं हमें
हर घड़ी सचेत
दिखाकर जीने की सही राह
रखते है हमें आलोकित
तथा
शब्दों के पुष्ट भोजन परोसकर
भरते हैं हममें नित नयी ऊर्जा

पाक्षिक पर्व के अवसर पर
...